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झारखण्ड: एक स्थायी सरकार की जरुरत
और फिर से एक बार झारखण्ड विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी हो चुकी है, संभावनाओ का चुनाव... असंभावनाओ का चुनाव... अपेक्षाओं का चुनाव... आश्वासनों का चुनाव... लेकिन इन सब के बीच जो सबसे बड़ा प्रश्न है वह ये है की क्या इस बार भी झारखण्ड को एक स्थिर सरकार मिल पायेगा??
झारखण्ड, प्राकृतिक संपदाओं से सम्पन्न एवं देश के कुल खनिज का 40% भाग अकेले रखने वाला राज्य है. संभवतः भारत का सबसे ज्यादा राजनैतिक उथल-उथल पुथल वाला राज्य. जहाँ अब तक राज्य के गठन के 14 साल बाद भी अब तक एक भी स्थिर सरकार नहीं बन पाई है. अब जब राज्य अपने पन्द्रहवें साल में प्रवेश कर चूका है और ऐसे समय में जब चुनावी अधिसूचना जारी हुई है तो न सिर्फ पार्टी, बल्कि मतदाताओं ने भी अपने भविष्य के बारे सोचना शुरू कर दिया है. साल 2014 मतदाता जागरूकता का साल साबित हुआ है और जाहिर है, इसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव झारखण्ड की राजनीती पर पड़ना है.
81 विधानसभा सीट वाले झारखण्ड में अब तक 14 साल में 9 बार सरकार बन चुकी है. जिनमे 5 अलग-अलग मुख्यमंत्री बने हैं. श्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन, मधु कोड़ा और शिबू सोरेन पुत्र श्री हेमंत सोरेन. सबसे लम्बी कार्यावधि सितम्बर 2010 में गठित हुई अर्जुन मुंडा सरकार की थी जिसने 860 दिनों तक सत्ता संभाला. सबसे छोटी कार्यावधि मार्च 2005 में गठित शिबू सरकार की थी जो महज़ 10 दिन ही टिक पाई. राज्य में अब तक 3 बार कुल 621 दिन तक राष्ट्रपति शासन भी लग चूका है. ऐसे में एक स्थिर सरकार न सिर्फ वक़्त की मांग है, बल्कि सर्वजन की जरुरत है. क्यूँ की, 9 बार सरकार बनने के बाद भी राज्य अपने बदहाली के चरम पर है. बात चाहे नक्सली समस्या की हो, चिकित्सा की हो, शिक्षा की हो, सड़क की हो या फिर रोटी की, हर मुद्दे पर राजनीती होने के बाद भी हर मुद्दे पर सरकार विफल ही रही है.
असल में झारखण्ड झारखण्ड की राजनीती में एक गज़ब का गुण है. सरकार बनाने का. एक तरफ तो पूरे झारखण्ड में क्षेत्रवाद की राजनीती चलती है. जिसका परिणाम यह हुआ है की अब तक हुए एक भी चुनाव में किसी पार्टी विशेष को बहुमत नहीं मिला. यहाँ दो बड़ी पार्टियाँ भारतीय जनता पार्टी और झारखण्ड मुक्ति मोर्चा हैं जो सरकार बनाने की क्षमता रखते हैं. इसके अलावा आजसू हर बार किंग-मेकर की भूमिका निभाता रहा है. सरकार गठन के लिए निर्दलिय विधायक बाकायदा ख़रीदे एवं बेचे जाते हैं (ज्ञात हो की कई बार स्थानीय मीडिया इस विषय में आलेख प्रकाशित कर चूका है). असल में यहाँ कोई भी पार्टी किसी का विरोधी नहीं, क्यूँ की जनादेश के बाद किसे किसकी जरुरत पड़ जाए, किसी को नहीं पता. सबसे मज़ेदार बात यह है की पिछले 14 सालों में किसी भी दल ने स्वच्छ विपक्षी की भी भूमिका नहीं निभाई. अब तक ये काम प्रिंट मीडिया करता आ रहा है. सरकार बनाने के लिए आश्वासन, वादे तो बहुत छोटे चीज़ हैं, यहाँ अपने मूल्य और नैतिकता तक बेचे जाते हैं. जाहिर है, इस तरह से बनी सरकार का भविष्य क्या होगा? सबको साथ लेकर चलने में विकास की अवधारणा मीलों पीछे छुट चुकी होती है.
इस साल के दिल्ली एवं केंद्र के सत्ता परिवर्तन से कहीं न कहीं मतदातों में जागरूकता बढ़ी है. उन्हें अपने वोट का कीमत का पता चला है. खास कर जब उनके पास ‘राईट तो रिजेक्ट’ आ गया है. हालाँकि झारखण्ड में अब तक भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी साबित हुई है, और जबकि पार्टी ने एलान किया है चुनाव मोदी जी के मार्गदर्शन में लड़ा जाएगा, इसका सीधा सा मतलब है भाजपा मोदी लहर को भुनाने की पूरी तैयारी में लगा है. जनता दल (यु) के जाने से भी भाजपा को कोई घाटा होते नहीं दिख रहा, उल्टा जनता दल (यु) अपने वजूद की लड़ाई लड़ते दिख रहा है. उसके पास कांग्रेस एवं घटक दल से साझा के अलावा कोई भी विकल्प नहीं दिख रहा. और कांग्रेस के साथ समझौते के परिणाम को बाबूलाल मरांडी से बेहतर और कौन समझ सकता है? हाँ, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा पिछले चुनाव में 18 सीटें ला कर भाजपा के बराबरी पर था. शिबू झारखण्ड में कद्दावर हैं, और इसलिए झामुमो के लिए संभावनाएं बनती है. स्पष्ट बहुमत मिलने के परिस्थिति में आजसू का भूमिका मायने नहीं रखेगा. हाँ, देखने वाली बात ये होगी की निर्दलीय विधायक जो अब तक जन भावनाओं से खेलते आये है, उनका क्या होने वाला है...
खैर, परिस्थितियां जो भी हों... आशा है अपने 15 वें साल में बदहाली से व्यथित इस राज्य को एक स्थिर सरकार मिले. और ये तभी संभव होगा जब हम सोच समझ के अपने मताधिकार का प्रयोग करें.
Thanks.
SANJEET PATHAK!!!
0 CoMMenTs !!! - U CaN aLSo CoMMenT !!!:
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